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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं को प्रस्तुत कीजिए।
अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
अथवा
बौद्ध नीतिशास्त्र की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

बौद्ध नीतिशास्त्र का भी उदय जैन नीतिशास्त्र की भाँति हिन्दू नीतिशास्त्र के प्रतिपक्षी के रूप मैं हुआ है। इसके प्रवर्तक गौतम बुद्ध थे। उन्होंने वैराग्य जीवन अपनाकर कुशलता, शांति, सत्य और ज्ञान का उपदेश दिया। नीतिशास्त्र के संदर्भ में महात्मा बुद्ध ने मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग या मज्झिम प्रतिपदा को अपनाया है। बुद्ध का यह मार्ग अरस्तू के सुन्हले मध्य के समान ही है। समाज के शूद्र तथा दलित वर्ग के प्रति बुद्ध का स्नेह और प्रेम प्रबल था। वास्तव में उनका उद्देश्य मोक्ष के मार्ग का निर्देशन करना था। वे ऐसा ज्ञाने उत्पन्न करना चाहते थे जिससे स्पृहा वासना का विनाश हो। उनका विश्वास सार्वभौम उत्थान में था, इसलिए वे सम्पूर्ण मानव को सत्य के निकट लाना चाहते थे। शील एवं आचार के वे समर्थक थे तथा उनका यह विश्वास था कि इनके बिना मनुष्य का जीवन युक्ति युक्त नहीं है। वे त्याग और संयम में पूर्ण आस्था रखते तथा निवृत्ति और ब्रह्मचर्य के पालन पर जोर देते थे।

उन्होंने कहा था कि जिस कर्म से सब सुखी हैं वही कर्म ठीक है तथा जिस कर्म से अपने को तथा दूसरे को दुःख पहुँचता है वह कर्म उचित नहीं है। इसके लिए मनुष्य में प्रत्यवेक्षा ( स्वयं देखभाल की प्रवृत्ति) होनी चाहिए। कमछन्द ( काम तथा लोभ), व्यापाद (द्वेष तथा हिंसा) आदि वृत्तियाँ मनुष्य को निष्क्रिय बनाती हैं। अतः इन वृत्तियों का उपशम (दमन) होना चाहिए जो प्रज्ञा, शील समाधि, वीर्य (अशुभ के विनाश तथा शुभ की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला कार्य) तथा दृढ़ संकल्प से ही सम्भव है। प्रज्ञा की अभिव्यक्ति मनुष्य की बुद्धि और विवेक शक्ति है। इससे यह अच्छे या बुरे की पहचान करता है तथा सत्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है। समाधि का सम्बन्ध मनुष्य की ध्यान की अवस्था से है। यहाँ मन को सन्तुलित कर एकाग्र भाव से रहा जाता है। शील पांच प्रकार के हैं -

1. प्राणतियात विरति - हिंसा से विरत रहना।
2. अदत्तादान विरति - प्राप्त न होने वाली वस्तु को न लेना या चोरी करना। 
3. कामभिव्याचार विरति - काम तथा झूठे आचार से विरत रहना।
4. मृषावाद विरति - झूठ से विरत रहना।
5. सुरामैरयप्रमादस्थान विरति - नशीली वस्तुओं और आलस्य से दूर रहना।

शील सम्पन्न पथ पर चलने के लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि और ज्ञान को निर्भर करना चाहिए। बुद्ध ने सामाजिकता को महत्व प्रदान किया है तथा जाति संस्था का विरोध भी किया है। कर्म के आधार पर ही मुनष्य को छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए। बुद्ध दासता के विरोधी तथा स्वतन्त्रता के समर्थक थे।

आर्य सत्य

महात्मा बुद्ध की शिक्षा का सार उनके चार आर्य सत्यों में सन्निहित है जिनका उपदेश बुद्ध ने जनसामान्य को दिया है। बुद्ध के अन्य सभी उपदेशों का सम्बन्ध एवं आधार स्तम्भ यही चार आर्य सत्य हैं। इन आर्य सत्यों के महत्व के सम्बन्ध में बुद्ध ने कहा है- "इन चार आर्य सत्यों को भली- भांति न जानने के कारण मेरा और तुम्हारा संसार में जन्म-मरण दीर्घकाल से जारी रहा। इस आवागमन के चक्र में हम सभी दुःख भोगते रहे परन्तु अब इसका ज्ञान हो गया है। अतएव दुःख का समूल नाश हो गया, अब आवागमन नहीं होता है।"

बुद्ध के चार आर्य सत्यों में से प्रथम आर्य सत्य दुःख है, द्वितीय आर्य सत्य के अनुसार दुःख समुदाय है, तृतीय आर्य सत्य के अनुसार दुःख निरोध है तथा चतुर्थ आर्य सत्य में कहा गया है कि दुःख निरोध मार्ग है।

गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के अनन्तर प्रथम व्याख्यान सारनाथ में दिया। इसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। इसमें उन्होंने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। प्रथम आर्य सत्य दुःख है। संसार दुःखपूर्ण नहीं अपितु दुःख ही है। जीवन दुःख है, जन्म दुःख है, जरा दुःख है, मरण दुःख है। जीवन के दुःख का बोध तब होता है जब तृष्णाओं की पीड़ा बीमारियों का प्रकोप और भावनाओं की व्यथा का विचार किया जाता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दुःख नित्य है। दुःख नित्य है, यह एक अति है। दुःख बिल्कुल नहीं है, यह दूसरी अति है। इन दोनों अतियों के बीच का मार्ग मध्यमा प्रतिपद् यह है कि दुःख अनित्य हैं दुःख है किन्तु इसका निरोध सम्भव है। दूसरा आर्य सत्य है कि दुःख का हेतु या कारण है। यह दुःख का निदान है इसे प्रतीत्य समुत्पाद कहते हैं। दुःख का प्रतीक जरा भरण है। जरा-भरण क्यों होता है? जाति (जन्य) के कारण। जन्मदायक कर्म क्यों होते हैं? उपादान (आसक्ति) के कारण। असक्ति क्यों होती है? तृष्णा (इच्छा) के कारण। तृष्णा क्यों होती है? वेदना (अनुभूति) के कारण वेदना क्यों होती है? विषयों का स्पर्श या सम्पर्क होने के कारण स्पर्श क्यों होता है? छः इन्द्रियों षडायत के रहने के कारण। छः इन्दियाँ क्यों होती हैं? नाम-रूप अर्थात् मन और शरीर के कारण नाम-रूप क्यों होता है? इसकी उत्पत्ति क्षण विज्ञान (चिन्ता) रहने के कारण। विज्ञान क्यों होता है? संस्कार (पूर्व जन्म के अनुभव) के कारण। संस्कार क्यों होते हैं? अविद्या के कारण। इस प्रकार दुःख का मूल कारण अविद्या अर्थात् पूर्व जन्म की दुःख दशा है जो क्षीण न होने के कारण दुःख चक्र को उत्पन्न करती जाती है। प्रतीत्यसमुत्पाद के इन बारह निदानों को धर्म कहते हैं और उनके संघात को धर्म-चक्र कहते हैं। इसका अनुलोम इस प्रकार है-

1. अविद्या
2. संस्कार
3. विज्ञान
4. नाम-रूप
5. षडापतन
6. स्पर्श
7. वेदना
8. तृष्णा
9 उपादान
10. भव
11 जाति तथा
12. जरामरण।

इसमें अविद्या और संस्कार का सम्बन्ध पूर्व जन्म से है। जाति और जरामरण का सम्बन्ध भविष्य जीवन से है। तीसरा अर्थ सत्य अष्टांगिक मार्ग है। ये निम्न हैं- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कमन्ति, सम्यक् आजीव सम्यक् व्यायग्म, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि। चौथा अर्थ सत्य निर्वाण है। यही मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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